शनिवार, 20 अक्टूबर 2018
गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018
बुधवार, 19 सितंबर 2018
Taziya kyu manaya jata hai
Technical RSN बुधवार, सितंबर 19, 2018 muharram ka itihas, muharram kya hai, muharram kyu manaya jata hai, taziya kyu mnaya jata hai No comments
ताजियों का इस्लाम से नहीं कोई रिश्ता , जानिए ताजियों के शुरूआत की हकीकत ताजियों का इस्लाम से नहीं कोई रिश्ता , जानिए ताजियों के शुरूआत की हकीकत*
मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन् का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। क्यूंकि ये तारीख इस्लामी इतिहास कि बहुत खास तारीख है….. रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नहीं है। .. तजिया की शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
*भारत में ताजिए का इतिहास*
भारत में ताजिए और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया। फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है।
वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया।
इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया। तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई। खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया।
लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि) का बना ताजिया मंगवाया था। कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है….लेकिन हमारे भाई बहन जो न इल्म है और इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हमारा ही काम है.
“ उन्होनें बिद्दत खुद इजात की हमने इसकी इजाजत नही दी ” - (कुरान: ५७:२७)
“ हर गुमराही कि चीज यानी बिद्दत जहन्नम में ले जाने वाली है ” - (हदीस: अबू दाऊद, तिरमिज़ी, इब्नेमाजा)
– – – – – – – –
“कहदो गमे हुसैन मनाने वालो से ,
मोमिन कभी शहीद का मातम नही करते ,
हे इश्क अपनी जां से ज्यादा आले रसूल से ,
यूं सरे आम उनका तमाशा नही करते,
रोए वो जो मुनकिर है सहादते हुसैन के
हम जिंदा वो जावेद का मातम नही करते “
मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन् का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। क्यूंकि ये तारीख इस्लामी इतिहास कि बहुत खास तारीख है….. रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नहीं है। .. तजिया की शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
*भारत में ताजिए का इतिहास*
भारत में ताजिए और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया। फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है।
वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया।
इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया। तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई। खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया।
लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि) का बना ताजिया मंगवाया था। कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है….लेकिन हमारे भाई बहन जो न इल्म है और इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हमारा ही काम है.
“ उन्होनें बिद्दत खुद इजात की हमने इसकी इजाजत नही दी ” - (कुरान: ५७:२७)
“ हर गुमराही कि चीज यानी बिद्दत जहन्नम में ले जाने वाली है ” - (हदीस: अबू दाऊद, तिरमिज़ी, इब्नेमाजा)
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“कहदो गमे हुसैन मनाने वालो से ,
मोमिन कभी शहीद का मातम नही करते ,
हे इश्क अपनी जां से ज्यादा आले रसूल से ,
यूं सरे आम उनका तमाशा नही करते,
रोए वो जो मुनकिर है सहादते हुसैन के
हम जिंदा वो जावेद का मातम नही करते “
मंगलवार, 18 सितंबर 2018
Moti kaise bante hai
असली मोती बहुत ही कीमती होता है आपको यह जानकर
आश्चर्य होगा कि मोटी समुद्र में पाए जाने वाले एक छोटा सा जीव घोंघा बनाता है जो जमीन पर भी दिखाई देता है
Note
खतरों के खिलाड़ी है ये
इसे बड़ी-बड़ी मछलियां खा जाती हैं
इसे इसके ही परिवार के बड़े सदस्य खा जाते हैं
जब यह जान बचाने के लिए धरती पर आता है तो मनुष्य इस को खा जाता है
अपनी जान बचाने के लिए यह अपने शरीर पर एक कड़ा खोल का निर्माण करता है जिसे सीप कहते हैंऔर इस सीप के अंदर ही मोटी का निर्माण होता है
Story of pearl(moti)
मोटी की खोज की कहानी बहुत ही दिलचस्प है लगभग 8 से 4000 वर्ष पहले एक चीनी आदमी भूख से पीड़ित था उसने खाने के लिए कुछ सीप इकट्ठा कीऔर उनको खोला कि उसमें कुछ खाने की चीज है मिले उसे उन कुछ सीपीओ में से एक गोल चमकदार चीज मिली जिसे मोटी कहा जाने लगा
क्या आप जानते हैं कि घोंघा मोटी का निर्माण कैसे करता है यदि किसी घोंघा के सीप में गलती से एक बालू का कन चला जाता है तो घोघा सीप की पदार्थ पर परत पर परत लगाए चला जाता है यह परत कैल्शियम कार्बोनेट की होती है कुछ समय बाद सीप में मोती बन जाता है जो गोल और सफ़ेद और चमकदार होता है यह आवश्यक नहीं कि मोटी सफेद ही हो इस का रंग गुलाबी लाल काला कुछ भी हो सकता है
Artificial pearl(moti)
अब तो मनुष्य ने भी कृत्रिम मोती बनाना शुरु कर दिया है इसके लिए मनुष्य सीप में कृत्रिम तरीके से बालू प्रवेश कराते हैं और 2 से 3 साल बाद सीप को पानी से बाहर निकालते हैं तो उसके अंदर मोती मिलता है
असली मोती बहुत ही कीमती होते हैं इन्हें खरीदना सबके बस की बात नहीं है
Biggest pearl(moti)
7 मई 1934 को फिलीपींस में एक ऐसा मोटी पाया गया जो 9:5 इंच लंबा और 5:30 इंच ब्यास का जिसका वजन 6 पॉइंट 37 किलो था इस मोटी का नाम lao tzu pearle